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जीवन-प्रत्याशा / विमलेश शर्मा

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संवाद के आत्मीय अवसरों से
भाषा मुझे जिलाए रखती है
भिन्न-भिन्न अंचलों में बिखरी मेरी क़ौम को
एक सूत्र में बाँध
यह स्वैरिणी बहती रहती है सतत
व्याकरण के तटबंधों से आबद्ध होकर
यूँ बहकर वह क्षेममयी
जीवन सरस बनाती है
किसी कविता की ही तरह
इसी से मैंने जाना कि
भाषा का होना ब्रह्म का होना है
भाषा की सिद्धि स्वयं ब्रह्म होना है।