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जीवन / सुरेन्द्र रघुवंशी
Kavita Kosh से
तुमने क्यों नहीं पढ़ीं वे क़िताबें
जिनमें बहता है जीवन का झरना निरन्तर
जिसकी फुहार में नहाने से
मिटती है थकन की समग्र पीड़ा
तुमने ही किया स्वयं के लिए
उदास बैठी पराजय का वरण
तुम क्यों नहीं गए उस ज़िद्दी नदी के किनारे कभी
जो विशालकाय चट्टानों से टकराकर भी
हारकर नहीं लौटी पीछे कभी
अपने घोंसले के लिए तिनके बीनती चिड़िया से
तुमने क्यों नहीं की दोस्ती
ख़ून जमा देने बाली सर्द रात में
अपने खेत की प्यासी फ़सल में पानी देते हुए
अधनंगे किसान को तुमने क्यों नहीं देखा
देश की सिसकती सच्चाई को दर्शाते गाँव में
कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है हारने के लिए
जैसे तुमने कर दिया समर्पण
और शरणागत होकर काँपते हुए डाल दिए हथियार
निर्णायक लड़ाई से पहले ही ।