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जीवन का सच / सांवर दइया
Kavita Kosh से
गगनचुंबी इमारत थी जो
खड़ी है वही खण्डहर बन
अब न हंसी-ठहाके
न बातों का शोर
न फुसफुसाहटें
भांय-भांय करता है सिर्फ सन्नाटा
लकदक हरियल गाछ था जो
खड़ा है वही ठूंठ बना
अब न झूलने-खेलने आते हैं बच्चे
न चहचहाते हैं पंछी
न विश्राम लेते पंथी
अकेलेपन की ऊब है चौतरफ
संध्यावेला में
अकेला नहीं गया हूं मैं
साथ है मेर्रे जीवन का सच
यह खण्डहर
यह ठूंठ
यह भांय-भांय करता सन्नाटा
और यह अकेलेपन की ऊब !