जीवन की दुकानदारी / विपिन चौधरी
बजरबट्टू की तरह जीवन खूब घुमाता है
ताकि सब गोल-गोल घूमते रहें और
उसकी दकान बेखटके चलती रहे
ये पंडे ये घंटियों का शोर गुल
ये मदारी
ये तबलची
ये मुखौटा धारी
ये बगुला-भगत
ये त्रिपुंड धारी
ये वादी, आदि, इत्यादि सब के सब पोशम्पा भई पोशम्पा खेलते रहें और
जुटी रहे भीड़ इनके आस-पास
और यह जीवन इसी धमाधम के बीच करवट ले सोता रहे
गाहे-बगाहे नाक की पुंगी बजा-बजा कर अपनी ओर आकर्षित कर
कूटशब्द में ध्वनित होता रहे
कि मैं हूँ तुम हो
मैं नहीं तुम कहाँ
और इस जीवन की भोली सूरत को
मीठा गुड़ समझ लोग इस पर भिनभिनाने लगें
यह जीवन ही तो था
जो हमारी हथेलियों पर आड़ी-टेढ़ी लकीरें खींच रहा था
कि आओ माथा मारो यहाँ कुछ देर,
जबकि इसी ने हमारे दिमागों पर एक बड़ा ताला लगा कर
चाबी अपनी जेब में रख ली थी,
कि हम अपने हाथों में माथा मारते रहे
और वह खुले सांड़ की तरह दूसरों के निजी जीवन में सिर घुसाता रहे
अभी-अभी देख कर लौटे हैं
इसके सारे ताम-झाम इंतजाम,
और इसकी बाजगरी में शामिल होने के बाद
हम बुरी तरह थक गए हैं
अब बारी हमारी है
तीसरा नेत्र खुलने का मामला अब प्रकाश में आया है
अब जो मौका हाथ आया है
जीवन के लम्बोतरे चेहरे पर कस के देने का
और हमने जम कर अपने काम को अंजाम दे दिया है
हाथों में अब कस कर दर्द है
और एक में पसीने की एक लकीर उतर आई है
शुक्र है कि अब साँसें पहले से बोझिल नहीं रहीं
हम अपनी गति से चल रहे हैं
जीवन की गति से नहीं