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जीवन पूरा भरा हुआ है / विनीत पाण्डेय

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पाने का सुख, खोने का दुख,
कहाँ है इनके लिए जगह अब ?
जीवन पूरा भरा हुआ है ।

कण-कण जोड़-जोड़ कर घट का
रूप मिला मिट्टी को जब से,
क्रम आरंभ हुआ तिल-तिल कर
खालीपन भरने का तबसे,
स्वप्न सलोने, बड़ी अपेक्षा
वर सबकुछ पूरा होने का,
दृढ़ संकल्पों की ढेरी के
भीतर भय हिम्मत खोने का,
दूजो का था, अपना जुड़ने से
सब कुछ दोहरा हुआ है,
जीवन पूरा भरा हुआ है ।

नयी कड़ी जुड़ती लड़ियों में
कर्तव्यों की, अधिकारों की,
नयी प्रविष्टि सम्बंधों की
सबके भावी विस्तारों की
कितने सुलझे-उलझे निर्णय
गठरी सब के परिणामों की,
अमिट छाप अंतर्द्वदों की
बाह्य जगत से संग्रामों की,
एक मिटा तो नयी चोट से
फिर एक घाव हरा हुआ है,
जीवन पूरा भरा हुआ है।

नेहमयी अनगिनत छुअन की
शब्दशून्य सारी यादों से,
संघर्षों से विजित भाव के
समय-समय पर अवसादों से,
ऊँची उड़ी कल्पनाओं के
टूटे बिखरे हुए परों से,
गड़ी हुई पाताल लोक तक
चाहों के अस्थि पंजरों से,
जहाँ रिक्ति थी, वहाँ समीक्षाओं
का बोझा धरा हुआ है,
जीवन पूरा भरा हुआ है ।