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जीवन भीम, पलासी / रविकान्त
Kavita Kosh से
उड़ते हुए ताजे कपास-से
ये दिन
तपती हुई, ढलती दोपहरी में
सायकिल पर हुमकती साँसों के लिए ही
बने हैं
कल भी, आज भी
और जान लो कि आगे भी
मन नहीं मानेगा मेरा
किसी सुनसान
काली, गरम सड़क के किनारे
खेत की मेड़ के पास
उत्फुल्ल लाल फूलों से दागी देह लिए
मुट्ठी बाँधे, सीना ताने
लू सहने की बहादुरी आँकने वाले
पट्ठे के सिवा
और कुछ नहीं बनना चाहता मैं
और कुछ भी नहीं