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जीवन में कर रहे हैं / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
जीवन में कर रहे हैं, जीवन की हम उगाही।
काग़ज़ के कोरे तन पर, ख़ुद डाल दी स्याही।
झूठों का हो गया है, बाज़ार गर्म हरसू,
झूठे ही दे रहे हैं, झूठों की अब गवाही।
तूफ़ान ऐसा आया, छप्पर को है उड़ाया,
निर्धन ही झेलते हैं, होती है जो तबाही।
फैली है हरसू नफ़रत, दहशत भरी फ़िज़ाँ हैं,
जीवन में भोगते हैं, सब लोग बेपनाही।
हर शख़्स आज सहमा-सहमा इंसानियत नहीं है,
इस दौर में सज़ा है, इंसाँ की बेगुनाही।
हम जा रहे कहाँ है, यह बात कुछ तो सोचो,
कब तक तिलक चढ़ेगी, बेटी वह बिन ब्याही।
इंसानियत के दुश्मन, चेहरे बदल रहे हैं,
‘प्रभात’ हर गली में है उनकी बादशाही।