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जीवन संग्राम / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
जैसे-जैसे जीवन ढलता है
रस्ता लम्बा होता जाता
यह चोटी गुज़री वह आई
वह गुज़री फिर नई आ गई
अन्तहीन अवरोधों का यह
कठिन सिलसिला बढ़ता जाता
नए-नए टीले बालू के
तेज-तेज चल रही हवाएँ
छाया लम्बी होती जाती
क्षितिज धूसरित होता जाता
समझ रहा था अन्त जिसे
वह तो लगता आरम्भ अभी है
लौट-लौट कर समय आ रहा
फिर से नई चुनौती देता।