जीवित समिधा / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
एक अनुत्तरित विराट प्रश्न सा जीवन ?
जीवन अपने अन्तिम मोड़
और अन्तिम पड़ाव पर पहुँच रहा है.
अपनी आहत बिडंबनाओं के संसार को,
स्थिरता से समेत कर ,
इसी जगत मैं छोड़ जाना चाहती हूँ.
कुछ भी तो ले जाने योग्य नहीं है.
न किसी हेमंती सांझ की स्मृतियाँ ,
न किस्सी का स्नेह आविल संबोधन
केवल भूकम्पी आघात,
विच्छेद की कुंठाएं ,
आलोचनाओं की तिरुस्कृत शब्द मालाएं ,
कूटनीति मैं लिपटी हुई ,
सत्य और सादगी की दुर्दशा ,
कर्तव्यों के प्रति औरों से कहीं अधिक सजग, सलग
फ़िर भी कर्म अकर्म, अर्थ अनर्थ
और अधिकारों से विलग.
सम्तान्यों से कहीं अधिक विषम ताओं का प्रबल संवेग,
शूल की नोक पर ,
चढ़ा हुआ ,
जीवन अब तड़प कर स्थिर होना चाहता है.
अपने को अणुभर भी तो बचा कर नहीं रखा है.
इस देह को जीवन यज्ञ में,
तिल तिल हवन होने दिया है.
इस अनाथत्व, अनाश्वस्त , शरण हीनता में.
साँस लेना दूभर लगता है.
पर जन्म लेने का अपराध किया है
तो विष पान करना ही है.
संस्कार वश मिली चिर पीडा को सहन करना ही है.
जीवन यज्ञ में कर्तव्यों की,
दिव्य आहुति देते हुए,
स्वयं को अश्रु युक्त जीवित गीली समिधा सा सुलगाया है.
अब सुलगना नहीं जलना चाहती हूँ,
सिंदूरी ज्वालाओं से ,
दग्ध लौ के रूप में,
जिसमें लौ से लौ मिलकर एकाकार हो जाए.
अब चेतना मुक्त, विदेह और प्रांजल हो गई है.
इतनी असम्प्रक्त और निरासक्त हो गई है की
प्रकृति और कर्म परमाणु से भी निरासक्त.
चरम समाधि में डूबी जा रही है.
अब में स्वयम को पहचान गयी हूँ.
अतः आकाश के सिवाय
कोई अन्य शरीर स्वीकार्य नहीं,
और कोई ऐसी सत्ता है भी नहीं
जो मुझे मृत्यु दे सके या उससे तार सके.
मेरा तरन तारण मेरे सिवाय कोई अन्य नहीं.
जीवित समिधा बन कर
आत्मनाश नहीं आत्मजय किया है.
काय क्लेश नहीं,
काय सिद्धि की है.
यही अभीष्ट है