जुबिली ब्रिज / आनंद गुप्ता
हुगली नदी के दोनों किनारों को जोड़ता
एक सौ तीस वर्षों से खड़ा है
असंख्य यात्राओं का गवाह
यह पुराना और जर्जर जुबिली ब्रिज।
इसके समानांतर
इसकी जगह लेने को तैयार
शान से खड़ा है एक नया ब्रिज अनाम
जैसे बूढ़े पिता की जगह लेने
तैयार खड़ा हो एक युवक
छुटपन में यात्राओं पर जाते हुए
खड़खडाते ब्रिज पर रेंगती रेलगाड़ी देखकर
रोमांचित हो जाते थे हम
हमारी यात्राओं के रोमांच में
हमेशा शामिल होता था यह पुराना ब्रिज।
जब इसे पार करती थी रेलगाड़ी
माँ अपने बटुए से निकाल कर एक सिक्का
डाल देती थी नदी में
लेकर गंगा मैया का नाम
तब अक्सर सोचता था
क्या करती होगी नदी उन सिक्कों का
क्या खरीदती होगी अपने लिए मनपसंद सामान?
रेलगाड़ी की यात्रा से ज्यादा आकर्षित करता हमें
खड़खड़ाता ब्रिज
और उससे टकराती सिक्कों की खनक
जो संगीत की तरह गूँजती थी हमारे कानों में
जिसकी प्रतिध्वनि यात्राओं के बाद भी
करती थी हमें रोमांचित।
अब जबकि तैयार है एक नया ब्रिज
इस पुराने की जगह लेने
क्या सोचेगा वह पुराना ब्रिज
जब दौड़ेगी पूरे वेग से रेलगाड़ी
नए ब्रिज पर
पुराने को ठेंगा दिखाते हुए
उस दिन लौटेगी ब्रिज की पुरानी स्मृतियाँ
उस दिन स्मृतियों की अँधेरी गुफा में
खो जाएगा ब्रिज
उसके मौन सन्नाटे को तोड़ेगा
नए ब्रिज की खड़खड़ाहट
और सिक्कों की खनखनाहट
जिसकी प्रतिध्वनि उसे कर देगा बेचैन।
इस तेज भागते समय में
जबकि हमारी पुरानी स्मृतियाँ
तेजी से हो रही है क्षीण
वर्तमान को एक अंधे रफ्तार की जरूरत है
अपनी लाचारी पर सिसकते हुए
नि:सहाय बूढ़ा ब्रिज त्याग देगा अपने प्राण
उस दिन।