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जूड़े किसी के कल महके थे / अमरेन्द्र

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जूड़े किसी के कल महके थे
यूँ ही नहीं तो हम बहके थे।

उसकी काया की खुशबू ले
फूल खिले थे कल आँगन में
यूँ तो वह थी जेठ की संझा
भीग रहे थे हम सावन में
होड़ा-होड़ी में अधरों की
रात-रात भर तन लहके थे।

रेशम की-सी रात लगी थी
क्षण-क्षण में मधुमास विपुल थे
एक-एक कर सीअन सारे
संयम के जाते थे खुलते
सूनी-सी निस्तब्ध निशा में
मिलकर सौ चिरई चहके थे।