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जूते / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
इतिहास के
आधुनिक उदास मोड़ पर
उपेक्षित पड़े हैं जूते;ऐंठे
औंधे चरमराए
जूतों की नसों मे
जब्रो-सितम
तानाशाही के अभी बाक़ी हैं
कितने पास हूँ अपने
इन में दर्द की सुलगन देख कर
कि जूतों की नसों का दर्द
उर्जा भरता है किस कदर नंगे पाँवों में
पुतलियाँ अभी थिर हैं
सहमे हुए ताल के पानी की तरह
भीतर ही भीतर
हलचल से सराबोर
देखता हूँ :
तानाशाहों की
भुतैली हवेलियों की नींद में
हज़ारहा नंगे पाँव,बढ़ रहे
सपनों का परचम फहराते हुए
सुबह की अनन्त यात्रा पर