जेठ की घूप / विमल राजस्थानी
अब जग उठा जन-जन
हमारे भारत का जन-जन
दुलारे भारत का जन-जन.
माँ के पद-पद्मों पर
लुट जाने को तत्पर.
चालीस कोटी तन-मन
चालीस कोटि यौवन
चालीस कोटि जीवन.
अब जाग उठा जन-जन
हमारे भारत का जन-जन.
कुछ दिन पहले ही तो—
आँखों में घूमा ‘सत्तावन’
पहले से कहीं अधिक—
मस्ती से झुमा ‘सत्तावन’.
इनने देखा, उनने देखा, दुनिया ने भी देखा—
दिल खोल जवानी जुझी थी
कुछ कर देने की सूझी थी
चालीस कोटि कर बड़े काटने माता के बंधन.
हमारे भारत के बंधन
दुलारे भारत के बन्धनं
रे जाग उठा जन-जन, हमारे भारत का जन-जन.
जब बनी ‘माँग की अरुण रेख’
तलवारों की लाली
जब-दमन-फूँक से बुझी कई
कुटियों की दीवाली.
जुल्मों की, अत्याचारों की जब—
घटा घिरी काली
पूरब से तभी ‘किसी स्नेही’ ने
फेंकी उजियारी.
उस उजियारी में चमक उठा फिर भारत का कण-कण
हमारे भारत का कण-कण
दुलारे भारत का कण-कण.
‘उस’ वीर तपस्वी ने हममें--
कुछ ऐसी शक्ति भरी
इस वयोवृद्ध भारत के प्रति—
कुछ ऐसी भक्ति भरी
उसने हममें आजादी की—
ऐसी अनुरक्ति भरी
हमने फिर हँसकर हाथों में—
ले ली तलवार गिरी.
फिर उछल जवानी ने ली अँगड़ाई, चमका जीवन
फिर बना ‘जेठ की धूप’ हमारी आँखों का सावन
फिर जग उठा यौवन
हमारे भारत का यौवन.
हमने सोचा, हमने समझा, हमने देखा-भाला
सुलगी है जन-जन के मन में विद्रोहों की ज्वाला.
वह रात गयी काली-काली, यह दिवास गया काला
अब दूर नहीं है आजादी का झिलमिल उजियारा.
चालीस कोटि कंठों में क्रंदन के बदले गर्जन
बल भरते ‘जयप्रकाश’, ‘सहगल’, औ’ ‘शाहनवाज’ ‘ढिल्लन’.
अब जाग उठा जन-जन
हमारे भारत का जन-जन.