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जैसे-जैसे हम बडे होते गए / विजय वाते
Kavita Kosh से
जैसे-जैसे हम बडे होते गए ।
झूठ कहने में खरे होते गए ।
चांदबाबा, गिल्ली डण्डा, इमलियां ।
सब किताबों के सफे होते गए ।
अब तलक तो दूसरा कोई न था ।
दिन-ब-दिन सब तीसरे होते गए ।
एक बित्ता कद हमारा क्या बढा ।
हम अकारण ही बुत होते गए ।
जंगलों में बागबां कोई न था ।
यूं ही बस, पौधे हरे होते गए ।