भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जैसे / अरुण कमल
Kavita Kosh से
जैसे
मैं बहुत सारी आवाज़ें नहीं सुन पा रहा हूँ
चींटियों के शक्कर तोड़ने की आवाज़
पंखुड़ी के एक एक कर खुलने की आवाज़
गर्भ में जीवन बूंद गिरने की आवाज़
अपने ही शरीर में कोशिकाएँ टूटने की आवाज़
इस तेज़ बहुत तेज़ चलती पृथ्वी के अन्धड़ में
जैसे मैं बहुत सारी आवाज़ें नहीं सुन रहा हूँ
वैसे ही तो होंगे वे लोग भी
जो सुन नहीं पाते गोली चलने की आवाज़ ताबड़तोड़
और पूछते हैं--कहाँ है पृथ्वी पर चीख ?