जो इक पल भी किसी के / साग़र पालमपुरी
जो इक पल भी किसी के दर्द में शामिल नहीं होता
उसे पत्थर ही कहना है बजा वो दिल नहीं होता
ये शह्र—ए —आरज़ू है जिसमे हासिल है किसे इरफ़ाँ
यहाँ अरमाँ मचलते हैं सुकून—ए—दिल नहीं होता
अगर जीना है वाँ मुश्किल तो मरना याँ नहीं आसाँ
जहाँ कोई किसी के दर्द का हामिल नहीं होता
सफ़ीना बच के तूफ़ाँ से निकल आए आए भी तो अक्सर
जहाँ होता था पहले उस जगह साहिल नहीं होता
वो अपनी जुस्तजू में दूध की तासीर तो लाए
फ़क़त पानी बिलोने से तो कुछ हासिल नहीं होता
कुछ अपने चाहने वाले ही हिम्मत तोड़ देते हैं
वगरना काम दुनिया में कोई मुश्किल नहीं होता
क़दम जो जानिब—ए—मंज़िल उठे वो ख़ास होता है
जहाँ में हर क़दम ही हासिल—ए— मंज़िल नहीं होता
हमीं कल मीर—ए—महफ़िल थे न जाने क्या हुआ ‘साग़र’!
हमारा ज़िक्र भी अब तो सरे— महफ़िल नहीं होता