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जो उतरा फिर न उभरा कह रहा है / शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
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जो उतरा फिर न उभरा कह रहा है
ये पानी मुद्दतों से बह रहा है
मिरे अंदर हवस के पत्थरों को
कोई दीवाना कब से सह रहा है
तकल्लुफ़ के कई पर्दे थे फिर भी
मिरा तेरा सुख़न बे-तह रहा है
किसी के ऐतमाद जान ओ दिल का
महल दर्जा-ब-दर्जा डह रहा है
घरौंदे पर बदने के फूलना क्या
किराए पर तू इस में रह रहा है
कभी चुप तो कभी महव-ए-फ़ुगाँ दिल
ग़रज़ इक गू-मगू में ये हो रहा है