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जो छोड़ गए हैं अपना बसेरा / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
पत्ते नहीं हों जिस पेड़ में
केवल फूल ही फूल
आकाशा की ओर खिले हुए
उन टहनियों का रंग मेरा है
मटमैला मिट्टी सा
और यहाँ मिट्टी कहीं भी नहीं है
सब कुछ बदल गया है हरियाली में
रात में ओस के बदले बर्फ का गिरना देखता हूँ
दिन में इनका धीरे-धीरे पिघलना
और शाम को उस लड़की का
गाने के लिए किया जा रहा रियाज पहाड़ी पर
दूर कहीं बहुत सारे घरों से आती है ऐसी आवाज
और अब कबूतर भी वापस लौटने लगे हैं
शाम को घिरते देखकर
उनकी उड़ान से उठती है शुभ हवा
हजरतबल पर अपने को न्योछावर करती हुई।
जो गये हैं यहाँ, उनका मन नहीं होता लौटने का
इन सारे दृश्यों को देखकर
और जो पहले से थे यहाँ
फिर मजबूरीवश छोड़कर गए अपना बसेरा
दुख होता है उन्हें यहाँ पर न देख पाने का।