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जो तुम देखना भूल गए / नरेश अग्रवाल

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पहम अजनबी हैं यहाँ के लिए
और हम तो वो देखेंगे
जो तुम देखना भूल गए अपने ही देश का
हर दिन एक नयी छाया पाओगे हमारे चेहरे पर
हर बार जैसे हमें कोई नया खजाना मिला।
सारे जंगल एक से नहीं होते
और न ही पर्वत और नदियाँ
हम चलना चाहते हैं पेड़ों के साथ
कदम से कदम मिलाते हुए
हम भूल जाना चाहते हैं दूरियों को ।
इन सारे पुराने आकारों से
निकलते हैं नये-नये आकार
ये बेड़ी की तरह हमें बाँध देते हैं
वे हमें जाने नहीं देंगे
हम कितने खुश हैं यहाँ
यह बार-बार याद दिलाती है यहाँ की हवा
मौसम बदलता है जैसे हमारी आँखों का जादू
जब तक सोचते हैं बारिश में भींगे
धूप चली आती है
जब तक धूप को देखें कुहासा सामने
और तुम लोग कहाँ खड़े होंगे
हमें तो याद भी नहीं।