जो पीर लिखे वह साधु है / चंदन द्विवेदी
महलों के वैभव पर लिखना तो सबको आसां लगता है
लेकिन वसुधा का दर्द कहाँ महलों के मन में जगता है
दिन रात सिसकती आंखों का जो नीर लिखे वह साधु है
नंगे पैरों के छालों का जो पीर लिखे वह साधु है
विपदाएँ आती जाती हैं
विश्राम कहाँ कर पाती हैं
मन के आंगन में सबके पर
अनवरत् टीस रह जाती हैं
यह भी विपदा की बेला है
नियति का क्रूरतम खेला है
सत्ताएँ निद्रा में निमग्न
जबकि सड़कों पर रेला है
ऐसी निद्रा पर निर्मम बन जो वीर लिखे वह साधु है
नंगे पैरों के छालों का जो पीर लिखे वह साधु है
कर ने कर से कर थे वसूले
कर क्योंकर फिर लाचार हुए
जिनसे छाया पीढ़ियों तक को
उनके जीवन नि: सार हुए
क्या धर्म अर्थ क्या काम मोक्ष
उनके जीवन में नहीं रुका
कष्टों की कितनी किस्तें हैं
जो अबतक भी है नहीं चुका
ऐसी सत्ताओं पर निर्मम शमशीर लिखे वह साधु है
नंगे पैरों की छालों का जो पीर लिखे वह साधु है