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जो मोहिं होती हरिसों प्रीति / स्वामी सनातनदेव

राग हंस ध्वनि, ताल झूमरा 8.9.1974

जो मोहिं होती हरि सों प्रीति-
आपुहि मोह द्रोह दुरि जाते, पाती मति रति-रीति॥
ममता मिटि समता हिय आती, जाती भव की भीति।
सब ही अग जगसों उपरति ह्वै होते हरि ही मीत॥1॥
राग-रोष सोसित ह्वै उर में होती प्रिय की प्रीति।
काम-क्रोध को सोध-रोध ह्वै जगती जिय में नीति॥2॥
अपने केवल हरि ही लगते, अनुदिन बढ़ती प्रीति।
हरि के नाते होती सबकी सेवा सुठि सुपुनीत॥3॥
सब ही में दिखते निज प्रीतम-यही प्रीति की रीति।
प्रीति मात्र ही होते प्रेमी अरु प्रिय नित्य प्रतीत॥4॥
सभी भाँति जीवन निर्मल ह्वै हो तो हियो पुनीत।
प्राननाथ की रति में रत ह्वै मति अति होति विनीत॥5॥