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जो सुनायी दे उसे चुप सिखा / मोहसिन नक़वी

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न सन्नाटों में तपिश घुले,
न नज़र को वक्फ-ए-अजाब कर
जो सुनायी दे उसे चुप सिखा,
जो दिखायी दे उसे ख्वाब कर

अभी मुंतशिर न हो अजनबी,
न विसाल रुत के करम जता
जो तेरी तलाश में गम हुवे,
कभी उन दिनों का हिसाब कर

मेरे सब्र पर कोई अज्र क्या,
मेरी दोपहर पे ये अब्र क्यूँ ?
मुझे ओढने दे अज़ीयतें,
मेरी आदतें न ख़राब कर

कहीं आबलों के भंवर बजे,
कहीं धुप रूप बदन सजे
कभी दिल को थाल का मिज़ाज दे
कभी चाम-ए-तर को चनाब कर

ये हुजूम-ए शहर-ए-सितमगरां ,
न सुनेगा तेरी सदा कभी
मेरी हसरतों को सुखन सुना,
मेरी खवाहिशों से ख़िताब कर