जोगन / शशि पाधा
मन बनवासी , तन जोगन
अधरों पे नीरव मौन धरे,
जीवन पल यूँ झरते जाते
पतझर में यूँ पात झरे।
इच्छाओं की गठरी इक दिन
अनचाहे ही बांधी मैंने ,
अनजानी अनबूझी सी कोई
साध न मन में साधी मैंने ।
मन बिरवा प्यासा मुर्झाया
किस सावन की आस करे ?
मन चाहे इक पंछी बन कर
दूर गगन उड़ जाऊँ मैं,
जगती से सब बंधन तोड़ूं
लौट कभी न आऊँ मैं ।
मन तो बस पगला बौराया
मन की पूरी कौन करे ?
सुख और दुख की कलियाँ गूँथी
जीवन माल पिरोई मैंने,
आस निरास के रंग भिगोए
तन की डार डुबोई मैंने।
विधना नित -नित जाल बिछाए
मन पंछी सिमटे -सिहरे ।
मन के इस बनवास का जाने
कभी कहीं कोई ठौर तो होगा,
इस जोगन संग अलख जगाए
यहां नहीं, कहीं और तो होगा ।
नित सपनों में देखूँ सूरत
आँख खुले तब क्यों बिसरे ?