भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज्यों सोने की किरन धरी हो / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
दुख का कुहरा
ओझल हो
जब आशा की उजास बिखरी हो
आओ गीत लिखें कुछ जिनमें
जीवन की मुस्कान भरी हो
पौ फटने से
पहले उठ कर
लम्बी सड़कें चलो नाप लें
सड़क किनारे टपरी वाली
चाय पियें, कुछ आग ताप लें
बेसुध सोये
बच्चे देखें
भले पास केवल कथरी हो
नहीं पढ़ें अखबार
चलो कुछ
बूढ़े बाबा से बतियायें
वापस चलें समय में पीछे
उनको बचपन याद दिलायें
चलें पुराने गाँव
जहाँ पर
रक्खी यादों की बखरी हो
रामदीन
रिक्शे पर बैठा
अभी एक कप चाय पियेगा
मफलर कस कर महानगर की
सड़कों पर फिर समर करेगा
उसके माथे पर
सूरज ने
ज्यों सोने की किरन धरी हो