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ज्योति-द्वार / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
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पत्ते के झरने से भी
कभी-कभी
शाम में ढल जाती है सुबह
श्ब्दों से भी
कभी-कभी खुलते हैं
ज्योति के द्वार
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