ज्योत्स्ना में / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
अर्धचंद्र के रजत-कटोरे से रजनी का रस कर पान,
झूम उठें निस्सीम गगन में मेरी रूप-तृषा के प्राण।
धीरे-धीरे खोले ज्यों-ज्यों कलिका-सी ज्योत्स्ना लोचन,
मधुमय, मुग्ध, अलस पलकों-सा झुके चेतना का यौवन।
विस्मित जग की भाषा जिनको ‘तारक’ कह, रह गई अचल,
उस अपूर्व सौंदर्य-सुधा के छीटों से मधुमय, उज्ज्वल।
यह नीलांबर, बने विहग-से मेरे उर का नीड़ उदार,
चपल कल्पना के पंखों का क्षितिज-विचुंबी क्रीड़ागार।
सुंदरता को छोड़, शून्य में है न अन्य अनुभव का नाम;
पायँ उसी के मधुर अंक में मेरे सुख-दुख चिर विश्राम,
जीवन की खोई कविता का जहाँ हृदय को मिले निशान,
जग के ठुकराए भावों को मिले साँस लेने को स्थान।
अंतर का आनंद-सिंधु हो ऐसी लहरों से भरपूर,
जिनसे टकराकर क्षण में हों चिंता की चट्टानें चूर।