झरोखा / आरती कुमारी
कितनी आसानी से
कह देते हो न तुम
कि कोई जवाब नहीं
मेरे किसी भी सवाल का
तुम्हारे पास..
कि चाहे जो समझूं मैं
चाहे जो सजा दे दूँ तुम्हें...
यह जानते हुए भी
कि
तलाश लेती हूँ
अब भी मैं
तुम्हारी उदास आँखों में झांक
तुम्हारी मजबूरियों को..
सुन लेती हूँ
बंद सिले होंठों में दबी
तुम्हारी बेबसी को...
महसूस लेती हूँ
तुम्हारे बोझिल कंधों पर पड़ी
जिम्मेदारियों को...
और कभी तो
तुम्हारी झुंझलाहटें भी
कह जाती हैं मुझसे
कि
रह नहीं पाओगे तुम भी
दर्द में तड़पता यूँ छोड़कर मुझे ...
प्रिय!
आखिर क्यों सताते हो खुद को..
क्या तुम्हें पता नहीं
कि तुम्हारी एक पुकार पर
पिघल सी जाती हूँ मैं
और
पलट सकती हूँ पूरी क़ायनात
अगर इरादा कर लूँ तो..
कि
तुम्हारी एक 'आह' पर
एक पूरी दुनिया छोड़
आ जाती हूँ.. तुम्हारे बिल्कुल करीब..
कि तुम्हारी एक नज़र
कर देती है मदहोश मुझे
और भीगने लगती हूँ
प्रीत की बारिश में तुम्हारे....
कि गुम हो जाते हैं मेरे सारे सवाल..
सारे जिरह..
तुम्हारी सच्चाई और खुद्दारी के आगे...
प्रिय!
आखिर क्यूँ विवश हो
रौंदना चाहते हो
उस आत्मिक अनुभूति को...
जिसके लिए सारी सृष्टि
एकाकार होना चाहती है?
क्या परिस्थितियों और समस्याओं ने
इस कदर जकड़ रखा है हमें
कि मिलजुल कर हम
बना नहीं सकते
प्रेम और विश्वास का एक झरोखा भी
जिसके आर पार
महसूस कर सके हम
अपने प्यार की उष्मा
और
सुन सके.. एक दूजे की
धड़कनों की आवाज़...!!