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झाड़ू-2 / प्रभात
Kavita Kosh से
जहाँ-जहाँ गया इंसान
वहाँ-वहाँ गई झाड़ू
इंसान को अकेला
और असहाय न पड़ने देने के लिए
कल ही गृहस्थ जीवन से छूटकर आए इस व्यक्ति ने
जो कि अब साधु हो गया है
जिसकी संगिनी मुँह ढाँककर विलाप करती है वहाँ
रात के आँगन में बैठी
‘गंगा जी के घाट पै सायब साधु होगो हो राम
लिख-लिख चिठिया दे रही बीरा बेगो सो आज्यौ हो राम’
रात-भर विचार किया साधु ने
असार-संसार से छुटकारा पाया अब मैंने
जागा तो भोर में अपना आसपास बुहार लेने की
बेकाबू इच्छा जागी मन में
कुछ पल बाद पाया कि
एक हाथ में झाड़ू है
और मन में झाड़ू लगाने की तैयारी
और इससे उसे राहत मिली गहरी
एक-एक पल भारी है
इस क्रूर अकेलेपन में