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झुकना होगा / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
धधकी नव-जीवन की ज्वाला पर
जितना तुम और अँधेरा फेंकोगे
वह उतनी ही द्विगणित आभा से दमकेगी !
जितने गहरे काले घन अम्बर में छाएंगे
उतनी गहरी उज्वलता से बिजली चमकेगी !
धरती पर जितनी
मनुज-रुधिर की बूँद गिरेंगी
उससे कहीं अधिक
विद्रोही जनता की फ़सल उगेगी !
जितना ज़्यादा जन-धारा को रोकोगे
उतनी ही गति से
वह अँगड़ाकर, लहराकर
पर्वत की छाती को फोड़ बहेगी !
जितना ज़्यादा निर्धन जनता को लूटोगे
उतना ही बदले में
मूल्य चुकाना होगा !
जितना ज़्यादा भोली मानवता पर
चढ़ इतराओगे
उतना ही उसके सम्मुख
घुटनों के बल झुकना होगा !