भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झुलसती धूप‚ थकते पाँव‚ मीलों तक नहीं पानी / हरेराम समीप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झुलसती धूप‚ थकते पाँव‚ मीलों तक नहीं पानी
बताओ तो कहाँ धोऊँ‚ सफ़र की ये परेशानी

इधर भागूँ, उधर भागूँ, जहाँ जाऊँ वहीं पाऊँ
परेशानी . . . परेशानी. . . परेशानी. . .परेशानी

बड़ा सुन्दर-सा मेला है‚ मगर उलझन मेरी ये है
नज़र में है किसी खोए हुए बच्चे की हैरानी

यहाँ मेरी लड़ाई सिर्फ़ इतनी रह गई यारो
गले के बस ज़रा नीचे‚ रुका है बाढ़ का पानी

जहाँ कुछ आग के बच्चे शरारत पर उतारू हैं
वहीं हुक्काम ने बारूद बिछवाने की है ठानी

समय के ज़ंग खाये पेंच दाँतो से नहीं खुलते
समझ भी लो मेरे यारो! बग़ावत के नए मानी