भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झुलसी धरती / शचीन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
साधो
सूख गया गंगाजल
धरती झुलसी है
नहीं कहीं अब
श्वेतपंख की पाँते हैं
नहीं रजतवर्णी मीनों की बातें हैं
लोग गुमे आभूषण अर्पित मुद्राएँ
यहाँ पत्थरों बीच खोजने आते हैं
लोगों की श्रद्धा भी
अब ढुलमुल-सी है
घाट-घाट पर
आसन लोग जमाए हैं
किन्तु प्यास बढ़ रही होंठ पपड़ाए हैं
द्रवित न कोई हदय यहाँ हो पाता है
और न पालन होती मर्यादाएँ हैं
तीर्थभूमि भी
हुई स्वार्थसंकुल-सी है
कल की बात हो गई
संझा बाती है
निष्ठा डगमग-डगमग पाँव बढ़ाती है
सतियों वाली चौकपुरी अँगनाई भी
सम्वेदना हदय में नहीं जगाती है
भूले हम आरती
उपेक्षित तुलसी है