भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झूठ बोलना पाप है / सुदर्शन रत्नाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ बचपन में सिखाया करती थी
झूठ बोलना पाप है
दूसरे बच्चों को टॉफ़ी खाते देख
जब मैं भी ज़िद्द करता तो
माँ मुट्ठियाँ बंद कर पूछती थी
किस मुट्ठी में टॉफ़ी है
मैं इशारा करता था

वह मुट्ठी पीठ पीछे छिपा कर कहती
टॉफ़ी तो कौआ ले गया
और ख़ाली हाथ मेरे सामने फैला देती
वह झूठ में ही मुझे बहला लेती
थोड़ा बड़ा हुआ तो देखा
माँ घर के ख़र्चे से पिता से झूठ कह कर
पैसे बचा लेती थी

फिर आड़े समय में काम में लाती थी
थोड़ा और बड़ा हुआ तो ज़रूरतें और बढ़ गईं
माँ हर दूसरे दिन खाना नहीं खाती थी
कहती थी, ‘भूख नहीं,

वही खाना मुझे खिलाती थी और
स्वयं भूखी सो जाती थी
मुझे आज भी याद है
बचपन में माँ ने सिखाया था
झूठ बोलना पाप है।