टँगी हुई कीली पर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
याद आ रहा मुझे
द्रौपदी का वह समर स्वयंवर
खेत हो गये वीर
अनेकों नाची मृत्यु भयंकर।
कारण बनी स्वयंवर का
मैं जीवन हीन हुई थी,
टँगी हुई कीली पर चक्रित
सबविधि दीन हुई थी।
यों सदा काल की
उँगली पर जीवन नर्तित है,
दाम-दाम परवश होकर भी
मन करता न सुकृत है।
नहीं आत्मोन्नयन जीव को
शीघ्र दृष्टि आता है,
ढोल दूर के बड़े सुहाने
क्हकर सुख पाता है।
लज्जा भूषण पहन
खड़ी थी द्रुपदसुता सुकुमारी,
अंग-अंग अरुणाभ
रक्तघन पूर्ण व्योम छवि न्यारी,
रत्नाभूषण विविध अंग
शुभ शान्ति अंक अंकित से,
यौवन नाट्य मनोहर के
प्रथमांक-पात्र अचकित-से।
विवश हो गया कर्ण
वर्ण उसके आड़े आया था,
वीर धनुर्धर लज्जित होकर
कितना अकुलाया था,
पीकर के अपमान घूँट
रह गया वीर बेचारा,
क्षात्र धर्म से पूर्ण,
किन्तु क्षत्रिय न सिद्ध था, हारा।
अन्तर्व्यथा कर्ण की
उस क्षण अकथनीय ज्वाला थी,
पी तो गया अनैच्छिक
कितनी व्यंग्य भरी हाला थी।
एक दिवस जब उसी कर्ण को
जल में गया बहाया
मेरे उर में ममता का
अभिनव प्रपात भर आया
वह अनबोला कुसुम
लोक की लीला को क्या जाने?
निर्मल भोला दिव्य रूप
माया को क्या पहचाने?
हाय निठुर कुन्ती!
तू ने ममता पर घात किया है,
लोक-लाज के लिए
त्याग-तम से मन स्नात किया है।
रूप माधुरी पर द्रुपदा की
मैं भी मुग्ध हुई थी,
श्रंगारित हो उठामनस था
पीड़ा सकल मुई थी,
राजा-राजकुमारों से
मण्डप हो उठा सुशोभित,
झाँक रही थी विकृत वासना
नयनों से अति लज्जित।
मृगनयनी के नयन झुके
धरती को देख रहे थे,
खींच नृपालों के उर पट पर
सोनल रेख रहे थे।
कम्पित थे मन प्राण
खिसकता धैर्य धवल जाता था,
एक-एक क्षण शक्ति परीक्षण
का ज्यों-ज्यों आता था।
लज्जित हुए अनेक भूप
प्रत्यंचा चढ़ा न पाये,
टूट गये अभियान दम्भ
पाखण्ड खण्ड हो छाये।
किन्तु उठा जब कर्ण,
द्रुपद का काँप उठा उर-अन्तर।
'सूत-पुत्र को नहीं वरूँगी'
जगा द्रौपदी का स्वर।
कौन दोष था उस अबोध
निर्दोष कर्ण बालक का?
सौंप दिया जीवन को जीवन
दान-धर्म-पालक का,
हाय! हृदय क्यों नहीं फट गया?
हृदय-खण्ड को तजकर?
जीवित रही किस तरह माता
जीवित पुत्र बहाकर?
किन्तु प्रकृति का प्रेम
सभी को सहज मिला करता है,
जहाँ सभी के लिए
एक रस का झरना झरता है।
गंगा ने ले गोद
कर्ण को जी भर कर दुलराया था।
सखियों सहित झूमकर
मैंने मधुर गीत गाया था।
लहरों के आँगन में गूँजी
देव जयी किलकारी,
उस असीम निर्मलता पर
हो उठी प्रकृति बलिहारी।
उस भोले निष्कलुष रूप पर
जनम-जनम बलिहारूँ,
प्राणों के अनमोल-रत्न
संकोच त्याग सब वारूँ
घोर अभागे उस आँगन
की कुछ पहचान नहीं है,
जिस में पावन षैशव की
मधुरिम मुस्कान नहीं है।
उस माधुर्य शिखर के
उर तक रश्मि जाल छाये हैं,
प्रभु-दर्शन वसुधा पर
मैंने शैशव में पाये है।
रही देखती घूम-घूम मैं
दुपदा मधुबाला को,
भव्य उजालों से समृद्ध
जीवन्त रंगशाला को।
धीर-वीर रणविद्याधर
पाण्डव वर समुपस्थित थे,
विप्रवेशधारी, वनचारी
श्री समृद्ध सम्भृत थे।
इंगित पाकर उठे पार्थ
परमार्थ सिद्ध करने को,
द्रुपदराज के रिक्त हृदय में
अमरत संचरने को।
विप्र धनुर्धर देख
सभा सब विस्मित चकित अमित थी,
अंग-अंग में ओज-तेज की
नवल दीप्ति द्यौतित थी।
द्रुपद सुता के नयन
विप्र को देख परम हर्षित थे,
हृदय-कमल के दल
उज्जवल अरुणाभ समुत्कर्षित थे।
मेरे खुले हुए दृग का
भेदन कर अर्जुन आये,
वर माला आ गयी कण्ठ में
कुटिल वीर अकुलाये।
ब्राह्मण दल सोल्लास हो उठा
जय ध्वनि गूँज उठी थी,
मन नहीं मन द्रौपदी
धनन्जय के पग पूज उठी थी।
एकाक्षिणी हुई मैं
फिर भी हृदय खिला जाता था,
अद्वितीय वर-वधू देख
सुख सहज मिला जाता था।
देख भाग्य वैषम्य
दृगों का मुझे हँसी आती थी,
रक्तस्नात थी एक
प्रेम से एक सनी जाती थी;
यों ही मानव जीवन
जग में है वैषम्य सँजोये।
एक आँख से हँसता रहता
एक आँख से रोये।
अर्थ पिशाच काम लोलुप
नृप ईर्ष्या बस जब जागे,
प्रस्तुत हुए युद्ध करने को
ब्राह्यण दल के आगे,
किन्तु भीम का खम्भोत्पाटन
और भयंकर मर्दन
सह न सका क्षत्रिय समाज
अर्जुन का शर संधायन,
फल पाकर हो गये सफल
सब कुटिल क्रूर नृप कामी,
द्रु्रुपसुता को साथ ले गये
केशव के अनुगामी।
तब मैं पीड़ा भूल
आँख की क्षणभर मुस्कायी थी,
परिवर्तन की कला
किन्तु कुछ समझ नहीं पायी थी।
किन्तु माता का निर्णय सुन
निकली हाय हृदय से,
निर्दयता हो गयी किसलिए
ममता मूर्ति सदय से?
पहले मन में आया था
बढ़कर प्रतिरोध करूँ मैं,
नारिधर्म की रक्षा के हित
कोई षोध करूँ मैं,
किन्तु देव की गति के आगे
कुछ भी कर न सकी मैं,
रही देखती नियति चक्र
स्वर कोई भर न सकी मैं,
मनोप्रिया अर्जुन की,
ब्याही गयी पंच वीरों से,
कोमलकान्त कामना कलिका
बिंधी भाग्य तीरों से।
देखी सुनी न ऐसी घटना
कभी सृष्टि-आँगन में,
बहु पत्नी की प्रथा रही
बहु पति न सुने जीवन में।
मर्यादा का बाँध किन्तु
कृष्णा ने कभी न तोड़ा
सरस, मधुर सम्बन्ध
सभी के साथ सहज ही जोड़ा-
और नारिव्रत का पालन
वह करती रही समुज्ज्वल,
रहे ज़िन्दगी की कुटिया पर
घिरे दुखों के बादल।
कभी समय महलों में बीता
कभी वनों में बीता
पूरा जीवन रहा घोर
संघर्ष धर्म की गीता।
रीता रहा प्राण का घट
बेबस पनघट पर जीता,
प्यासे हिरना-सा जीवन
जीवन के मरु में बीता,
किन्तु दया, ममता, करुणा की
ज्याति न बुझने पायी
रही अखण्ड रश्मियों की
माला-सी उर में छायी।
पुत्रों के सिर कटे
द्रौपदी आँखे भर-भर रोयी,
जिजीविषा-प्रतिमा की
सद्चेतना शून्य में खोयी।
जाग उठी भावना
अग्नि से कौरव कुल को भर दूँ,
खड्ग उठाकर सुतहन्ता
के टुकड़े-टुकड़े कर दूँ।
किन्तु क्रोध आकर
टकराया जब विवेक के तट से,
भावावेश हो गया
शीतल निर्णय बदला झट से।
दुख की बदली
हाय! हृदय से आँखों तक छायी थी
किन्तु धर्म-बन्धन से द्रुपदा
रंच न टल पायी थी।
हाय ब्राह्मण!
तू ने निज पद का अपमान किया है,
श्रद्धा के बदले
दुख का उपहार अनन्त दिया है।
सघन लोभ-लिप्सा से सज्जित
हुआ हृदय का दर्पण,
बार-बार धिक्कार तुझे
हे स्वार्थ समृद्ध ब्राह्मण!
सुनकर जिसकी आह
उभरता क्षणभर में अक्षर है,
देह धर्म से बँधा क्षणिक
वह आत्मा मुक्त अमर है।
और आह अन्तस की
जग को क्षार बना सकती है,
कुटिल-ज्ञान-विज्ञान-धर्म-
पाखण्ड मिटा सकती है।
बरस न पाये रंच
शाप के बादल बिखर गये थे,
ज्ञान दीप्ति सम्पन्न
हृदय में तारक उगे नये थे।
यद्यपि कृष्णा के
कृष्णा-जीवन में दुःख घना था,
हृदय-कुन्ज में ज्याति-पुंज
सद्धर्म अमन्द बना था।
व्यथा-कथा कृष्णा की
यद्यपि मुझे व्यथित करती है,
हृदय पद्म-पत्रों पर
करुणा के सौक्तिक धरती है,
किन्तु धर्म में तत्पर
कृष्णा कितनी सुख-दात्री है,
भारतीय नारी की
पावन छवि श्री निर्मात्री है।
पंचाली के चीर हरण की
याद मुझे आती है,
पशु सभ्यता राजकुल की
छाती को धधकाती है।
दुर्योधन के अन्तस में
ईर्ष्या का घट ढलता था,
साधु पाण्डवों की
समृद्धि श्री देख-देख जलता था।
धर्मराज ने द्यूतकक्ष में
सब कुछ हार दिया है,
पंचाली को लगा दाँव पर
कुल शृंगार दिया है।
अरे राजपुत्रों ने
कैसा घोर अनर्थ किया है,
अपनी लज्जा को
अपने ही हाथों लूट लिया है।
सुकुमारी द्रौपदी हाय!
असहाय सभा में आयी,
उर में ज्वाला मौन दृगों में
यमुना थी लहरायी।
रही विलखती कुल की लज्जा
किन्तु न पिघला कोई,
अपराजेय शक्ति कुरुकुल की
आँख मूँद कर सोयी।
जगज्जयी पाण्डव बैठे थे
बँधे धर्म-बन्धन से,
नियति चक्र में फँसे
झुकाये नयन विकल अति मन से।
एकाकी हो कृष्णा ने
मोहन को टेर लगायी
देर लगायी नहीं
कृष्ण ने साड़ी अमित बढ़ायी।
जगत उपेक्षित होकर
जब मन हरि में लग जाता है,
तो धरती ही नहीं
स्वर्ग भी उसके गुण गाता है।
हाय! प्रशासन तुझ पर क्यों
अंगार न बरस पड़े थे?
कुल के अंक कलंक-पंक में
डूबे हुए खडे़ थे;
किन्तु धर्म का कवच
व्रती की रक्षा कर लेता है,
धोकर पूर्ण कलंक
अंक को उज्ज्वल कर देता है।
मैंने देखे दिवस
पाण्डव वन-वन भटक रहे थे,
राजलिप्सुओं के मन में
वे फिर भी खटक रहे थे,
धारे हुए धैर्य उर-अन्तर
और धर्म जीवन में,
कालक्षेप कर रहे हरपल,
शान्ति सहेजे मन में,
फिर भी सतत लोकहित करना
दैनिन अंग बना था,
पर दुख पर करुणा का
उर में सघन वितान तना था।
शुचिप्रांशु भावना
उरन्तर का सिंगार करती थी
प्राणों में चेतना-
प्रेरणा नित नूतन भर थी।
कैसे-कैसे अकथनीय
दुख वन के पथ पर पाये,
सैरन्ध्री बन द्रुपद सुता ने
अन्तिम दिवस बिताये,
बोल उठा मेरा अन्तर्मन
धन्य-धन्य पांचाली!
करती रही धर्म पावन की
जीवन भर रखवाली।
नारी! तेरे जीवन में
सुख-दुख अपार भरा है,
यथा-योग्य सबके हित
तुझमें प्यार दुलार भरा है।
तेरी ही छवि छटा
सृष्टि की दीपशिखा अनुपम है,
तेरे बिना जगत का चिन्तन
केवल कोरा भ्रम है।
जीवन की धारा में
बहती रही अश्रु की धारा,
मैं भी जीती रही उसी में
मुझको मिला सहारा,
सोने पर भी कभी
बन्द दृग मैंने नहीं किये हैं,
देखे हैं निशि-दिवस
एक से मैंने सदा किये है।
टँगी हुई है जीवन-गाथा
चिन्तन की कीली पर
रागमयी है किन्तु व्यथाकुल
मन-वीणा ढीली पर।
जीवन राग सुना है मैंने
सागर की लहरों से,
शुभ्र चन्द्रिका बिखर रही
ज्यों श्यामल निशाकरों से।
भोग-विलास समृद्ध
धरा पर जो जीवन जीता है,
उसे मिली कब सुधाधार
जीवन का घट रीता है।
जिसे संकटों-पीड़ाओं ने
नहीं कभी दुलराया,
जीवन की परिभाषा को
वह समझ नहीं है पाया।
सुत्रासों सुघर्षों में जो
पला-बढ़ा धरती पर,
बाधाएँ कर पार हो गया
वही प्रणम्य अनश्वर।
धरा धैर्य का दान
सभी को करती ही रहती है,
सहती मर्दन किन्तु अंकुरण
की गाथा कहती है।
सबकी सहना और न कहना,
कुछ भी जग में तप है,
ऐसा जीवन स्वयं साधना-
सिद्धपूर्ण सुव्रत है।
यत्र-तत्र-सर्वत्र उसे
आनन्द स्वयं मिलता है,
उसके उर में कुण्ठाओं का
कुमुद नहीं खिलता है।
खिलते हैं तो कमल-
शान्ति सन्तोष लोकहित पावन
मनवता के लिए
लुटाते प्रतिभा-प्रभा-सुधा-धन।
ऐसी जीवन-ज्योति
युगों तक मुस्काती रहती है
जीवन के आलोक तत्व की
मधुर कथा कहती है।
जिसके उर में
कृष्ण-ज्योति आकर के बस जाती है,
उसकी ही ज़िन्दगी सरस हो
कृष्ण कहलाती है।
कृष्णा हो जिन्दगी
कभी तो तृष्णा आ न सकेगी,
तृष्णाओं से मुक्त
जिन्दगी युग-युग तक महकेगी
हे कृष्णा! तेरा अक्षर यश
अक्षर सदा रहेगा,
प्रबल प्रेरणा का प्रताप बन
जन मन मध्य बहेगा,
कृष्णे! तेरे त्याग और तप का
शत-शत वन्दन है,
हृदयहारिणी! हृदय भवन में
तेरा अभिनन्दन है।