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टुकड़ों में बँटा घर-दो / अवतार एनगिल
Kavita Kosh से
रिम-झिम बरसते सावन में
वह स्त्री
बेमतलब ही
एक से दूसरे कमरे में
जा-आ रही थी
एकाएक उसे लगा
बेटे ने ही
भड़भड़ाया था द्वार
कुछ वैसी ही
अधीर पुकार
भागती आई
सांकल हटाई
वही तो था! चश्मा लगाये
अंधियारी एक आँख छिपाये
एक टाँग वाला उसका लाल
बैसाखी पर तन झुकाये।