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टूटते रिश्ते / पवन चौहान
Kavita Kosh से
जाने क्यों बढ़ती जाती हैं दूरियां
पास रहकर भी
रिश्तों की डोर उलझ जाती है
अपने ही ताने-बाने में
दिशाविहीन कदमों की रुपरेखा समझना
मुश्किल हो जाता है
और वक्त तलाश लेता है मौका
पीछे धकेलने का
वक्त बन जाता है आदमी
पर आदमी कभी वक्त नहीं बन पाता
कदमों की आहट नहीं दे पाती
पहले-सा सुकून
ऑंखें प्यासी ही रह जाती हैं
नहीं मिल पाते दिल कभी
न ही मिलता है
प्यार भरी हथेलियों का मुलायम स्पर्श
स्ंवेदनशील हृदयों का पत्थर होना
श्रापित कर देता है एक युग।