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टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगें / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
यह ठहराव न जी पाएंगे
सांसों का
इतना सा माने
स्वरों-स्वरों
मौसम दर मौसम,
हरफ़-हरफ़
गुंजन दर गुंजन,
हवा हदें ही बांध गई है
सन्नाटा न स्वरा पाएंगे
यह ठहराव न जी पाएंगे
आंखों का
इतना सा माने
खुले-खुले
चौखट दर चौखट,
सुर्ख-सुर्ख
बस्ती दर बस्ती,
आसमान उलटा उतरा है
अंधियारा न आंज पाएंगे
यह ठहराव न जी पाएंगे
चलने का
इतना सा माने
बांह-बांह
घाटी दर घाटी
पांव-पांव
दूरी दर दूरी
काट गए काफ़िले रास्ता
यह ठहराव न जी पाएंगे
टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे