भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगें / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह ठहराव न जी पाएंगे
सांसों का
इतना सा माने
स्वरों-स्वरों
मौसम दर मौसम,
हरफ़-हरफ़
गुंजन दर गुंजन,
हवा हदें ही बांध गई है
सन्नाटा न स्वरा पाएंगे
यह ठहराव न जी पाएंगे
आंखों का
इतना सा माने
खुले-खुले
चौखट दर चौखट,
सुर्ख-सुर्ख
बस्ती दर बस्ती,
आसमान उलटा उतरा है
अंधियारा न आंज पाएंगे
यह ठहराव न जी पाएंगे
चलने का
इतना सा माने
बांह-बांह
घाटी दर घाटी
पांव-पांव
दूरी दर दूरी
काट गए काफ़िले रास्ता
यह ठहराव न जी पाएंगे
टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे