भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टूटे हुए से लोग / मोहन अम्बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज युग की साँस पर के रोग,
सत्य हम टूटे हुए से लोग।

आरती में स्वर नहीं दे पाये तो हम आरती पर फूँक देते हैं,
भूल से काँटा कहीं चुभ जाये तो हम फूल पर भी थूक देते हैं,
भावना का पट लगाकर पेट भरने के लिये हम,
चख रहे हैं देवताओं का कमाया भोग,
हम टूटे हुए से लोग।

शब्द कोशों में सदा ही कर्म वाले शब्द पर हमने रखी उंगली,
और गति के बाँधने को पाँव, पथ के कान में करते रहे चुगली,
श्वेत वस्त्रों श्वेत केशों में दबा दुर्भावनाएँ,
ऐनकों के बल रचाते सात्विकता का सफलतम ढ़ोंग,
हम टूटे हुए से लोग।

उत्पादकों उपभोक्ताओं बीच हमने ही रचे हैं ये छली बाजार,
और करने लग गये हैं चाँदी स्वर्ण जैसा प्यार का व्यापार,
स्वार्थ संघों की चलाई पाठशाला में पढ़े हम,
पढ़ न पाये प्राण-मन से प्राण-मन का योग,
हम टूटे हुए से लोग।