भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ठंडी सी छाँव / शशि पाधा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुर्गम पथ और भरी दोपहरी
दूर है मेरा गाँव,
थका बटोही मनवा चाहे
रिश्तों की ठंडी सी छाँव
 
पगडंडी पर चलते चलते
कोई तो दे अब साथ,
श्वासों में जब कम्पन हो तो,
कोई थाम ले हाथ ।
 
निर्जन मग, चंदा छिप जाए
जुगनु सा जल जाए कोई,
भूलूँ जब भी राह डगर मैं
तारा बन मुसकाए कोई ।
 
गोदी में सर रख ले जब
कोई काँटा चुभ जाए पाँव ।
 
दूर बसेरा और शिथिल हो गात
नीरव मूक खड़ी हो रात,
बीहड़ जंगल, घना हो कोहरा
अँधियारे में धुँधला प्रात
 
कारी बदली आकर ढक दे
नभ की तारावलियाँ जब
भूलूँ पथ, भूलूँ मैं मंज़िल
भूलूँ अपनी गलियाँ जब
 
कोई मुझे आह्वान दे
जब भूलूँ अपना नाम
 
थका बटोही मनवा चाहे,
रिश्तों की ठंडी सी छाँव