भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ठहर जाऊँगी / भावना जितेन्द्र ठाकर
Kavita Kosh से
असमय भी आवाज़ देना तुम
उसी पल ठहर जाऊँगी,
सहसा गूँज उठेगी जब
पहचाने स्पंदन की पुकार
कदमों पर लगाम कस जाएगी।
कपाट खुल जाएगा
देवी के मंदिर का
हिमालय की गाथा कहती
कंदराएँ ठहर जाएगी,
हरिद्वार की शान
मंदाकिनी मुस्कुराएगी।
जब पीछे मूड़ कर देखूँगी
तुमसे आँखें होगी चार,
उस मिलन से उठती
तीव्र रोशनी की पवित्र धूनी
आरती अज़ान-सी पाक होगी।
सुनो मुझे डर है
कहीं उन पलों को
ब्रह्म मुहूर्त समझते
शंख फूँकते मंदिरों के पूजारी
दीये की लौ न जला बैठे,
प्रेम की अनुभूति से थर्थराते
सारा संसार असमय ही
जाग न जाए कहीं।