ठहाका / मोहन कुमार डहेरिया
वरिष्ठ कवि मलय जी के ठहाके को सुनकर
यह कैसा ठहाका है
सुनते ही जिसे आशंकाओं और भय से
फटी की फटी रह जाती है आँखें
और मुँह आश्चर्य से खुला का खुला
क्षमा करें मलय जी
न समझें इसे अगर आप अपने सफ़ेद बालों का अपमान
या अपने व्यक्तित्व पर कोई अभद्र टिप्पणी
तो समझाएँ मुझे
आख़िर यह कैसा ठहाका लगाते हैं आप
जो निकलता तो है तनी हुई माँसपेशियों वाले
आपके मुँह की कमान से
किसी बाण की तरह सनसनाता अनन्त ऊर्जा से भरा
रचते हुए ध्वनियों का नया सौंदर्यशास्त्र
लेकिन इससे पहले कि वह पूरा कर पाए अपना सफ़र
बीच में ही हवा में टँग जाता है
निकालते हुए अपने अन्दर से छटपटाकर
एक अजीब-सी लय व करुण पुकार
ठोंक दी हो जैसे किसी ने
ख़ूब उन्मुक्त होकर उड़ते हुए किसी परिन्दे के
हौसले के बीच कोई कील
मैं जानता हूँ, बड़े भाई !
आपका यह ठहाका दुनिया के सबसे पवित्र
और सुन्दर ठहाकों में से एक है
लेकिन सचसच बतलाइए
यह ठहाका ही है
या आपके कण्ठ की घाटी में अधखिले उल्लास का
कोई अभिशप्त फूल
नहीं... नहीं... मलय जी, नहीं
नहीं लगाना फिर कभी ऐसा ठहाका
सुनते ही इसे भर आता है मेरी आँखों में पानी
बुदबुदा उठते है होंठ
मानों कर रहे हो ज़हरीले साँपों से घिरे
सुगन्ध की अनोखी दुनिया रचते
चन्दन के पेड़ के लिए कोई प्रार्थना
किसी बूढ़ी नाव के लिए कोई प्रार्थना...