भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ठोस सूरज / अनीता वर्मा
Kavita Kosh से
बर्फ़ की बेआवाज़ चादर फ़ैली हुई है
जीवन से मृत्यु तक
पृथ्वी ख़ामोश है और धीरे-धीरे घूमती है
इच्छाओं की तरह
तारे चमकते हैं धीमे-धीमे
उन्हें कोई जल्दी नहीं है
एक ठोस सूरज मेरे भीतर जमी हुई शक्ल में है
मैं सोचती हूँ और नहीं सोचती
ख़याल सिर्फ़ मकड़जाल हैं
मस्तिष्क में चुपचाप अपने तार फैलाते हुए
दिन भर के कामों में उलझी हुई
मैं पाँव सिकोड़ती हूँ
उनके भीतर सो जाने के लिए