डर / नीरज दइया
हत्यारै सूं सैंध खोटी।
जाणतां-भाळतां थकां ई
राखणी उण सूं- जै माताजी री
थानै पोसावै
म्हनै बगसो, जातरियां!
म्हनै डर नीं है, उण रो
बो फगत डरावै मौत सूं।
पण मौत सूं डर्यां
कद तांई जीवैला कोई?
हत्यारै सूं बेसी
डर है म्हनै लगोलग
खूटती सांस रो
कै म्हारो डर है-
आ खूटती सांस।
’पंचतंत्र’ री कथा दांई
धोबी रै चोरां नै
नीं टोकै अणधाप्यो कुत्तो
पण हुवै जिको गधो
बो करै गोलीपो अर चौकीदारी
मुफत री चौकीदारी
दिरावै मोटी मार!
कवि रो काम कांई है?
लोग कविता नै नीं मार सकै
कविता कथ रैयी है-
दुनिया रा सांच।
बा कैवै-
चोर नै चोर,
हत्यारै नै हत्यारो
अर आभै नै आभो।
किणी नै सीधो करण सारू
फगत एक ई’ज मारग नीं हुवै-
जंतरावण रो।
मौत रै जातरियां नै डर है
चोरां अर हत्यारां रो।
बै नीं कथणो चावै- सांच!
बै नीं सुणणो चावै- सांच!!
म्हनै बगसो जातरियां!
क्यूं कै जाणतां-भाळता थकां
म्हनै नीं पोसावै
थांरा छळ-छंद
अर दोगला दस्तूर।