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डर टूटने का / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
मुझे डर था
कहीं मैं टूट न जाऊँ
तुम्हारे झूठे वादों की तरह
मगर
मुझे क्या ख़बर थी
कि तुम टूटने लगी हो
मेरे सूखे हुए सपनों कि तरह