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डरी हुई हैं लड़कियाँ / श्रीविलास सिंह

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डरी हुई हैं लड़कियाँ
सड़कों पर, रास्तों में,
उजालों के राजपथ से लेकर
अंधेरों के जंगलों तक
वे डरी हुई हैं ।

उनकी बहादुर भाव भंगिमाओं पर मत जाइए
यह उनके भीतर की शक्ति है,
जिजीविषा की कोई लहर
जो चली आयी है
किनारे से थोड़ा आगे तक,
आगे बढ़ने, बचे रहने की
जिद है उनकी
मुस्कराती उनके चेहरों पर
अन्यथा वे डरी हुई जरूर हैं।

वे डरी हुई हैं
खुले आसमान के नीचे
हरे भरे खेतों में,
खलिहानों में और
सूखे बियाबान, रेगिस्तान की कछारों में,
स्कूलों और मंदिरों में,
भगवान और
उनके एजेंटों की चौखटों के पीछे, हर जगह
वे डरी हुई हैं,
यहां तक कि अपने घरों में भी।

उनका डरना वाजिब भी है
आखिर उन्हें पता जो है कि
घूम रहे हैं हर तरफ
भेड़ की खाल में भेड़िये।
उन्होंने देखी है
अनचीन्हे, पराये लोगों से लेकर
अपने अपनों तक के
जबड़ों से टपकती
लालसा की लार।

उन्होंने सुनी है
मौत की पदचाप
मां के गर्भ में ही,
उन्हें मिटा डालने की
दुरभिसंधियों की खुसपुस आवाजें
अब भी ताज़ा हैं
उनके अवचेतन में,
डराती उन्हें सपनों में
अपनों से ही।

वे डरी हुई हैं
हमारे सारे खोखले आश्वासनों के बावजूद,
क्यों कि वे जानती हैं
उन्हें देवी बनाने की
हमारी महान घोषित इच्छा के पीछे का छद्म।
संस्कृति के सौम्य मुखौटों के पीछे के
तीखी दाढ़ वाले राक्षसों को
देखा है उन्होंने कई बार
घर, बाहर, सब जगह।

वे डरी हुई है
यही है सच
सब से डरावना
हमारे समय का
और सबसे दुखद भी।