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डीजे की धुन / नरेन्द्र कुमार

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डीजे की धुन पर
गँवई लड़के नाच रहे हैं
अबीर उड़ा रहे हैं
रंग मल रहे हैं
अपने हिस्से के दुख से बेख़बर
उधार के शराब-सिगरेट की
खुमारी में डूब रहे हैं

इस घड़ी में
बर्बाद होती फ़सल नहीं है
पिता के फटे जूते नहीं है
माँ की पैबन्द लगी साड़ी नहीं है
अभी वे बेरोज़गार नहीं है
अभी वे लाचार नहीं हैं

कुछ घड़ी बाद
डीजे की धुन धीमी पड़ती है
अन्त में आख़िरी सांस की तरह
टूट जाती है
रंग-बिरंगी लाईटों के बुझते ही
लड़के पसीना पोंछ रहे हैं
फिर से वे बेरोज़गार हैं
फिर से वे लाचार हैं