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डूंगी / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
म्हूं
देखणौं पण नीं’चाऊं
रोजीनां पण देखूं
दारूडियां जुवारियां री
घर लिछम्यां
भूख गरीबी रै साम्हीं
आतम समरपण कर
तज’र सील बेचै डील
टाबर टांग्यां फिरै
कुडतै री ठोड़
पूरां री जेळमाळा
गळै में।
सिंज्या रो संख
पूरता ई
छिड़ै महाभारत
घर-घर
पैग मार’र पुजारी
जा भीचै देवता सूं
कै थूं नीं, कै म्हूं नीं।
धन रै लोभी पूत री
करड़ी मींट सूं
बूढै बाप रै हात सूं
छूट जावै कवो
पाच्छो थाळी में।
बोलां रा
बिख बुझयौड़ तीर
कर नीची धूण
सूंई छाती झेलती
अंतस रो दरद
नीसरै बीनण्यां
जकी है किणीं रै घर री
बै ’न बैटी
म्हूं देखणौं पण नी ’चावूं
देखूं पण रोजीनां।