भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डूब / स्वाति मेलकानी
Kavita Kosh से
डूब रही हूँ धीरे-धीरे और
तैरना भूल रही हूँ।
कई किनारे प्रस्तुत हैं पर
मुझको पार पहुँचना कब है
मेरा डूबना निश्चित अब है।