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ढँको प्रभु जी / गगन गिल
Kavita Kosh से
ढँको प्रभु जी
इस
दिल को ढँको
इस दिल में कई
आँधियाँ झूलीं
इस दिल में कई
लपटें फैलीं
भसम गए सब
जीव सलोने
ढँको प्रभु जी
इस वन को
ढँको
इस दिल में कई
शीत शिलाएँ
उफ़ने सोते
मुर्दा मच्छियाँ
दूर-दूर तक
रिस गया लावा
ढँको प्रभु जी
इस दुख को
ढँको
इस दिल में एक
नंगी चाहत
उखड़ी मिट्टी
टूटे नाखून
खुरच ले गई
माया मिट्टी
गटक गई सारी
प्यास जनम की
ढँको
प्रभु जी
इसके
कुएँ को ढँको
जल न मिले
तो इसे
मिट्टी से पूरो
ढँकनसकोतो एकनींददियो
लम्बी
नींद दियो