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ढल रही है शाम प्रियतम तुम न आये / रंजना वर्मा

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दिन निगाहों में कटा पथ हेरते आँखें थकी हैं
आश का दीपक नहीं अब टिमटिमाता
ढल रही है शाम प्रियतम तुम न आये॥

थी हृदय को तो प्रतीक्षा मिलन के इस एक पल की
पार कर कितने युगों को थी घड़ी आयी सुहानी
पाटलों की महक थी हर श्वास के आवागमन में
धड़कनों के सुर अजाने खिल उठी है रातरानी।

झरे हरसिंगार पंखुड़ियाँ गुलाबों से गिरी अब
सिर्फ कांटों की चुभन है चुहचूहाई उँगलियों में
मिला दुख अविराम प्रियतम तुम न आये।
ढल रही है शाम प्रियतम तुम न आये॥

चिलचिलाती धूप लू के चल रहे थे गर्म झोंके
धधकती ज्वाला बिरह की कौन इसको आज टोके।
हृदय चंचल अधर आतुर विकलता कि तप्त आँधी
झूमती उत्ताप लहरें पंथ इन का कौन रोके।

देह झुलसाने लगा आतप ह्रदय का और मौसम
हो गई निर्मम प्रकृति की आज यह सदया प्रकृति भी
है विधाता वाम प्रियतम तुम न आये।
ढल रही है शाम प्रियतम तुम न आये॥

करवटों में रात कटती प्यास की दुनियाँ अधूरी
मिट नहीं पाती ह्रदय से क्यों जमाने भर की दूरी?
दूर हैं हम दूर हो तुम किंतु मन तो एक ही है
कल्पनाओं में करेंगे हम मिलन की साध पूरी।

हर अतिथि के आगमन की आहटों पर चौंक उठते
धड़क उठता उर अधर की थरथराहट में समाया
बस तुम्हारा नाम प्रियतम तुम न आये।
ढल रही है शाम प्रियतम तुम न आये॥