तंत्र और नसीब / प्रताप नारायण सिंह
"अब...और कहाँ कहाँ दरखास दें बाबू !"
माथे की बूढ़ी खाल सिकुड़कर 
त्रिपुंड बना देती है;
संघर्ष, व्यथा, उल्लास
सारे मौसम झेल चुकी त्वचा 
उतनी पत्थर हो जाती है 
जितनी कर्णधारों की संवेदनाएँ।
हड्डियों के कटोरे में धँसी हुई आँखें 
शून्य में गोता लगाती हैं, 
और कुरूप हो उठते हैं 
आश्वासनों के कीचड़ में उगे 
स्वप्नों के सुन्दर चेहरे।
आशाहीन वाणी में घुली खिन्नता 
अंतिम उलाहना देती है 
(लोक) तंत्र को- 
"रहने दीजिए...."
ऐसा नहीं कि वह कभी लड़ा नहीं,
आजन्म लड़ता ही रहा है- 
भूख के बवंडर से 
बीमारी की बाढ़ से 
भय के अन्धकार से
पर क्षीण होती शारीरिक शक्ति....
और उससे भी अधिक जीर्ण विश्वास 
साहस को थका देता है।
अंतिम शब्द बुदबुदाहट से उभरते हैं- 
"हमारा नसीबा ही ऐसा है..."
एक ख़ामोशी धुंध सी छा जाती है 
आँखों से हृदय तक,
और फुसफुसाने लगती है निःशब्द-
सारे प्रयत्नों 
सारे परिश्रमों 
सारे संघर्षों को
विफल कर देने वाले 
षड़यंत्र को ही नसीब कहते है।
 
	
	

